कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय । जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥

Thursday, April 1, 2010

संकलन

ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं यह बात यथार्थ है। केवल उपदेशों से ज्ञान का नीरस लगने वाला विषय आज के युग में जबकि हर व्यक्ति प्रातः से सन्ध्या तक दौड़ भाग कर अर्थ संयम में लगा है, उसके लिये वृहद् ग्रन्थ पढ़ने का न तो समय है और न रुचि ही रही है। जीवन की इन उलझनों से व्यथित होकर सभी भाग रहे हैं। चाहे वह ज्ञानी हो या संसारी हो; ज्ञानी मैं मैं के पीछे भाग रहा है। भक्त तू तू के पीछे भाग रहा है और संसारी तू तू मैं मैं में फंस कर भाग रहा है। इस अवस्था पर गम्भीरता से चिन्तन करके ऋषि महर्षियों सन्तों ने कुछ सामयिक परिवर्तन किये ! ज्ञानोदेशों के सूत्रों को कथाओं में पिरोकर उन्हें द्रष्टान्त परक बना कर सामने रखा। तब लोगों की रुचि उन्हें पढ़ने की बढ़ने लगी। पुराण शास्त्र तर्क अथवा प्रमाण द्वारा जाँच पड़ताल का विषय नहीं है उनमें घटित घटनाओं से अपनी स्थिति का मिलान करके उनसे उपयोगी ज्ञान के रत्नों को चुनकर अपने जीवन में सुधार लाना ही श्रेयस्कर एवं लाभप्रद है। कथाओं के श्रवण से अशिक्षित लोग भी समुचित ज्ञानार्जन करके लाभान्वित हो सकते हैं। उनकी मानसिकता बदलने में का यह सार्थक उपाय है। बिना स्वस्थ मानसिकता के समाज में विसंगतियाँ ही बढ़ती हैं।

प्राचीन काल में वैदिक ज्ञान केवल मौखिक रूप से एक से अपर को मिलता रहा। फिर आगत काल में इसका लेखन भोजपत्रों तथा बांस की खपच्चियों पर लिखा जाने लगा। ऐसे दुर्लभ ग्रन्थ उड़ीसा में हमें कई स्थानों पर देखने को मिले। कुछ ग्रन्थ भोजपत्रों पर और कुछ ग्रन्थ बांस की पतली खपाचों पर नुकीली तीलियों से उकेरे अक्षरों में बड़ी सुन्दरता से लिखे दो किनारों पर छेदों में डोरे से पिरोये टंगें दिखाई दिये। मध्ययुग में श्रमिक वर्ग कृषि कार्यरत लोग, सेवा करने वाले उस ज्ञान से वंचित रहने लगे। तब सन्तों ने पुराण कथाओं के अनुष्ठान करके कथा के माध्यम से वह ज्ञान उन्हें रसमय मधुर पेय के समान पिलाना प्रारम्भ किया, लोक कल्याणार्थ मनुष्योपयोगी ज्ञान पौराणिक कथाओं को लीलाओं के द्वारा उन तक पहुँचाने की परम्परा डाल दी।


पौराणिक गाथाओं में प्रवाहित ज्ञान ही शाश्वत सत्य है। शेष उस तथ्य के प्रतिपादन के लिए सुनियोजित किया गया है। धर्म के अर्थ, अर्थ से काम एवं मोक्ष को प्राप्त करके लोग सुख प्राप्त करते हैं। मूल में धर्म ही है। धारण करने योग्य वस्तु का नाम ही धर्म है जिससे कल्याण ही होता है। धर्म के प्रति उदासीन रहने वाले पतन की ओर अग्रसर होते हैं जबकि धर्म का मार्ग ऊपर उठाने वाला है। धर्म की तुलना मजहब या संप्रदाय से करना बड़ी भूल है। धर्म सबके लिए समान होता है चाहे वह किसी जाति वर्ग अथवा सम्प्रदाय का हो। वह धर्म ही सच्चा मानव धर्म है। जो पुराणों की कथाओं में नियोजित मिलता है।

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